कर्ण व कृष्ण ...

कर्ण को महाभारत का सबसे दयनीय चरित्र माना जाता है। कर्ण को उसके वो अधिकार कभी नहीं मिले, जिनका वो पात्र था। कर्ण को वह सम्मान नहीं मिला, जिसका वह हकदार था। नहीं, वेदव्यास ने ऐसा कुछ नहीं लिखा, उन्होंने तो बस हर चरित्र के बारे में वैसा ही लिखा जैसा वो था। कर्ण दयनीय था, उसके साथ अन्याय हुआ था यह हम सोचते हैं क्योंकि महाभारत पढ़ते या सुनते समय हम जज की टोपी पहन लेते हैं।

कर्ण जैसे ही हालात भगवान कृष्ण के भी थे। कर्ण हस्तिनापुर की राजवधु कुंती का पुत्र था। कृष्ण मथुरा की राजकुमारी और राजा शूरसेन की पुत्रवधु देवकी के पुत्र थे। लोकलाज के भय से कुंती ने कर्ण को गंगा में की गोद मे डाल दिया जहां से कर्ण को उठाकर अधिरथ और राधा ने पाला। कृष्ण को कंस के भय से वासुदेव ने यमुना पार कर यशोदा की गोद मे डाला जहाँ उनका लालन पालन नंद और यशोदा ने किया।

कर्ण के गुरु भगवान परशुराम थे। परशुराम से ही कर्ण ने अस्त्र शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की। भगवान कृष्ण के भी तीसरे गुरु परशुराम थे, जिन्होंने कृष्ण को पाशुपतास्त्र चलाना सिखाया। कर्ण के पालक पिता अधिरथ भीष्म पितामह के सारथी थे, लेकिन कर्ण ने कभी सारथी बनना स्वीकार नहीं किया। कृष्ण के पालक पिता नंद ग्वाला थे, कृष्ण ने सहर्ष पिता के इस कार्य को अपनाया।

भरी सभा मे सारथी पुत्र कहकर कर्ण का सबसे अधिक अपमान भीम ने किया, जो कि वास्तव में उसका भाई ही था। भरी सभा मे कृष्ण को ग्वाला पुत्र कहकर कृष्ण का सबसे ज्यादा अपमान शिशुपाल ने किया, जो उनकी बुआ का लड़का अर्थात उनका भाई ही था। सारथी पुत्र होना कर्ण के लिए अपमानजनक था इसलिए वह दुर्योधन द्वारा अंग प्रदेश का राजा बनाया गया।

कंस को मारने के बाद कृष्ण ने मथुरा का राजा कंस के पिता उग्रसेन को बनाया, क्योंकि ग्वाला पुत्र होना उनके लिए अपमान की बात नहीं थी। युध्द कला में पारंगत होने के बाद कर्ण ने सीधा हस्तिनापुर सभा मे जाकर राजकुमारों को अभ्यास में शामिल होंने के लिए ललकारा। मल्लयुद्ध में पारंगत होने के बाद श्री कृष्ण गोपिकाओं संग रास रचा रहे थे। सारथी पुत्र होने बाद भी युद्ध मे कर्ण न सिर्फ रथी बना, बल्कि राजा शल्य को अपना सारथी चुना।

उधर कृष्ण जो स्वयं महारथियों के महारथी थे, उन्होंने अर्जुन का सारथी होना चुना। कृष्ण ने कभी अपात्र को दान नहीं दिया, इंद्र तक की पूजा बन्द करवा दी क्योंकि इंद्र आधुनिक पश्चिमी ईश्वर की तरह लोगों को डरा कर अपनी पूजा करवा रहे थे। कर्ण को दानवीर बनना था, इसलिए वह दोनों हाथों पात्र अपात्र सबको दान दे रहा था। भला एक साधु या देवराज इंद्र को कवच कुंडल की क्या आवश्यकता?

दरअसल कर्ण को पता नहीं था वह कौन है। वह बाह्य संसार को देख रहा था। वह हस्तिनापुर का वास्तविक उत्तराधिकारी था, लेकिन उसे पता नहीं था इसलिए वह अंगराज बनकर ही दुर्योधन के एहसानों तले दबे गया, जबकि अंग प्रदेश जन्म से उसके राज्य के अधीन था। कृष्ण को पता था वह जगत स्वामी है, इसलिए वह किसी राज्य के राजा नहीं बने। कर्ण को साबित करना था, कि वह योद्धा है इसलिए वह कुरुक्षेत्र के युद्ध मे लड़ा।

कृष्ण को पता था वह यह युध्द चुटकी में समाप्त कर सकते है, इसलिए उन्होंने शस्त्र न उठाने का प्रण लिया। कर्ण बाह्य संसार की दृष्टि से स्वयं को देख रहा था। वह स्वयं को पहचानने के लिए शूद्र बुद्धि का प्रयोग कर रहा था। कृष्ण आंतरिक दृष्टि से स्वयं को देख रहे थे, उनके पास ब्रह्म बुद्धि थी इसलिए उन्हें स्वयं को साबित करने की आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने अपना विश्वरूप दर्शन भी सिर्फ अर्जुन को दिया क्योंकि उसे आवश्यकता थी अर्थात वह पात्र था।

वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था दोनों में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ पायदान पर रखा गया है। सर्वश्रेष्ठ होना एक जिम्मेदारी है। जब एक पूरी पीढ़ी बौद्ध दर्शन के प्रभाव में आकर कायर हुई जा रही थी, तब ब्राह्मण समाज ने सर्वश्रेष्ठ होने की जिम्मेदारी उठाई। रामायण और महाभारत के योद्धाओं की कहानी जन जन तक पहुंचाई। उन्होंने रावण पर राम की जीत को ब्राह्मण की हार या क्षत्रिय की जीत के रूप में नहीं देखा, उन्होंने इसे असत्य पर सत्य की जीत माना और ऐसे ही जन मानस तक पहुँचाया।
उन्होंने द्रोण की हत्या को ब्राह्मण की हत्या की दृष्टि से नहीं देखा। यह उस व्यक्ति की हत्या थी, जो अधर्म के पक्ष से युध्द लड़ा, जो अपने शिष्यों को धर्म की शिक्षा देने में असमर्थ रहा। ब्राह्मण थे, गुरु थे, फिर अभी अधर्म के पक्ष में खड़े थे, इसलिए सिर काटा गया। दक्ष प्रजापति का भी सिर काटा गया क्योंकि सर्वश्रेष्ठता के अभिमान में चूर दक्ष समाज के बाहर के सन्यासी को समाज मे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।

सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों ने राम के मंदिर के बनाए, कृष्ण के मंदिर बनाए, शिव के मंदिर बनाए लेकिन भगवान परशुराम के मंदिर नहीं बनवाये। उनकी मूर्तियां सिर्फ वहीं बनाई गई, जहां भगवान विष्णु के सभी स्वरूपों की मूर्तियां बनाई गई। माता रेणुका के मंदिर बने, भगवान परशुराम के परशु के मंदिर बने लेकिन परशुराम के एकल मंदिर नहीं बने। उन पर मातृहत्या का दोष था। इसके प्रायश्चित के लिए राजस्थान में जहां उन्होंने सैकड़ो वर्षों तक तप किया, वहां उनका नही महादेव का मंदिर बनाया गया।

प्रमाणिक रूप से भगवान परशुराम का सबसे प्राचीन मंदिर सौ साल पहले ग्वालियर में बनाया गया। वह यहाँ इसलिए नहीं आए थे कि आप उनकी पूजा करें या उनकी आड़ में अपना जातीय अहंकार तृप्त करें। वह शिक्षा देने भी नहीं आए थे, उनके दीक्षित तीनों शिष्य महाभारत में अधर्म के पक्ष से लड़े। वह अधर्म के विनाश के लिए अवतार लेकर आए थे और उन्होंने वही किया। वह यहां स्वयं को ब्राह्मण, अवतार या फिर योध्दा साबित करने नहीं आए थे, क्योंकि वह ये सब कुछ थे।

आपने भगवान परशुराम को ब्राह्मण कह कर अंधाधुंध मूर्तियां बनानी शुरू कर दी, बिना ये सोचे कि आपके पूर्वज ब्राह्मणों ने ऐसा क्यों नहीं किया। आपने शहीदों को ब्राह्मण बताकर गर्वित होना शुरू कर दिया, गीतों पर झूमना शुरू कर दिया ताकि आप कर्ण की तरह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकें। दूसरी जातियां ऐसा करें तो चलता है क्योंकि उन्हें वर्ण व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ पायदान पर नही रखा गया।

ऐसा आप इसलिए करते है क्योंकि आपके मन मे संदेह है कि आप सर्वश्रेष्ठ हैं। ईश्वर को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं कि वह ईश्वर है, योद्धा को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं कि वह योद्धा है। ज्ञानी को यह साबित करने की आवश्यकता नही कि वह ज्ञानी है। ऐसा वही करता है जिसके मन मे संदेह होता है। आप सर्वश्रेष्ठ है, आपको पता नहीं है मगर आप हैं इसलिए आचरण और जिम्मेदारी भी सर्वश्रेष्ठ होने जैसी दिखाइए।

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